हाल-बेहाल बाजार-ऐ-दिल्ली

दिल्ली में पैदल चलने की आदत बनी रहती है, भला हो हमारे बाज़ारों का पांच मिनट का रास्ता आधा घण्टे में तय करने का मौका मिल जाता है। अगर आप दिल्ली से बाहर चलें जाएं तो भीड़भाड़ की आदत के कारण दिल लगता ही नहीं, ना दुकानों की चकाचैंध, ना हॉकर्स की चिल्ल-पौं...

बोर होने से बचाने का पूरा इंतज़ाम होता है, यहाँ सामान बेचने के लिए हसीन सी आवाज़ें निकाल-निकाल कर राहगीरों का मनोरंजन किया जाता है!  
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छूटना नहीं चाहिए निर्भया का गुनहगार

मानता हूँ कि कुछ चीज़ें संवैधानिक मज़बूरी में करनी पड़ती हैं, जैसे कि निर्भया केस में जघन्यय अपराध करने के बावजूद नाबालिग लड़के को अदालत ने फांसी देने अथवा जेल भेजने की जगह 3 साल के लिए बाल सुधर गृह में भेजा। जहाँ किसी मेहमान की तरह उसकी शिक्षा, खान-पान और सुरक्षा पर हज़ारों-लाखों रूपये का खर्च हुए। उसे काम सिखाया गया, लिखना-पढ़ना सिखाया गया, काउंसलिंग की गई और इसी तरह बाहर आने पर कारोबार के लिए 10 हज़ार रूपये और सिलाई मशीन दी जा रही है।

परन्तु यह बेहद ही दुःख और अफ़सोस की बात है कि उसे यह सब केवल बालिग़ होने से चंद महीने छोटा होने पर मिल गया, जबकि होना यह चाहिए कि किसी अपराधी की उम्र की जगह उसके अपराध की भयावहता को देखते हुए नाबालिग होने ना होने का फैसला लिया जाए। जो व्यक्ति क्रूर तरीके से बलात्कार कर सकता है, क्रूरता की इस हद तक जा सकता है कि लड़की की दर्दनाक मौत हो जाती है, वह हरगिज़-हरगिज़ नाबालिग नहीं हो सकता। फिर चाहे कानून में फेरबदल ही क्यों ना करना पड़े, पर ऐसे लोगों को यूँ खुला छोड़ने की जगह बालिगों की तरह ही सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए। ऐसे लोग किसी एक के नहीं बल्कि पूरी इंसानियत के गुनहगार हैं!

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प्रदुषण के ख़तरे पर सम-विषम फार्मूला और हमारी ज़िम्मेदारी

दिल्ली सरकार ने गाड़ियों को चलाने का सम-विषम फार्मूला सामने रखा, हो सकता है नाकामयाब रहे और यह भी हो सकता है कि कामयाब हो जाए... मगर हम लोग विषय की गंभीरता को समझने और कार पूल, सार्वजानिक परिवहन या इलेक्ट्रिक  इस्तेमाल करने की बात करने की जगह चुटकुले बना रहे हैं, कानून का तोड़ बताते फिर रहे हैं... जैसे कि प्रदूषण का नुकसान केवल केजरीवाल के बच्चों को ही होने वाला हो तथा हम और हमारे बच्चे सुरक्षित हों!

अगर वाकई ऐसा है तो फिर करते रहिये जो 'जी' चाहे, नहीं तो फिर प्रदुषण को रोकने की अपनी तरफ से भी पूरी कोशिश करिये, वर्ना आने वाली पीढ़ी हमें माफ़ नहीं करेगी!

हालाँकि यह भी सत्य है कि केवल इसी फॉर्मूले से हल नहीं निकलेगा, कुछ और फैसले भी लेने पड़ेंगे जैसा कि दिल्ली सरकार ने 4-5 महीने पहले अनाउंस किया था कि दिल्ली में एक परिवार को एक ही गाडी की इजाज़त मिलेगी और पहले ही गाडी की पार्किंग की जगह भी बतानी पड़ेगी, वर्ना गाडी नहीं खरीद पाएंगे।

कुछ लोग कह रहे हैं कि कहना आसान है, हालाँकि यह बात सही भी है कि कहना आसान है, कहना वाकई आसान होता है और करना मुश्किल! मगर अब पानी सर से ऊपर गुज़र चुका है बल्कि काफी पहले ही गुज़र चूका है, पर कम से कम आज तो ज़रूरत हर मुश्किल काम को अमल में लाने की है.... अगर खुदा ना खास्ता कोई एक प्रयोग फेल होता है तो कई और करने पड़ेंगे, लेकिन अगर आने वाली जेनरेशन को बचाना है तो मुश्किल फैसले करने ही पड़ेंगे, केवल सरकार को ही नहीं बल्कि हमें भी... हमारे भी फ्यूचर का उतना ही सवाल है।

कई लोगों को इस फॉर्मूले के नाकामयाब रहने का भी डर सता रहा है, क्योंकि उन्हें लगता है कि देश की जनता को कानून का डर नहीं होता, प्रदुषण से होने वाले नुकसान की चिंता नहीं है और यह भी कि हम लोग अपना आराम नहीं छोड़ना चाहते हैं... और समाज को देखकर काफी हद तक उनका तर्क भी सही लगता है, मगर यह सोचकर हाथ पर हाथ धार कर नहीं बैठा जा सकता है!

दिल्ली सरकार ने ‪#‎EvenOddFormula‬‬ के साथ-साथ कुछ और भी कदम उठाएं हैं जैसा कि सड़कों पर धूल को साफ़ करके साइड करने की जगह वेक्यूम क्लीनिंग की योजना है कमर्शियल गाडियो का एंट्री टाइम 9 बजे की जगह को रात 11 बजे किया गया है, क्योंकि उस समय तक दिल्ली में पहले ही काफी ट्रैफिक रहता है, साथ में कमर्शियल व्हीकल्स के आ जाने से स्थिति और भी खराब हो जाती हैज्ञात रहे कि ट्रेफिक जाम भी प्रदुषण का बड़ा कारण होता है। 

दिल्ली के दो पॉवर प्लांट्स बंद किये जा रहे हैं, जिनका उत्पाद कम हैं और उनपर निर्भरता भी कम हैं। प्रदुषण सर्टिफिकेट सेंट्रलाइज किये गए हैं, अर्थात अब प्रदुषण सर्टिफिकेट तब ही मिलेगा जबकि गाडी का प्रदूषण निर्धारित मानको से कम होगा, क्योंकि वाहन की जानकारी केवल जाँच पॉइंट पर ही नहीं बल्कि सेन्ट्रल पॉइंट तक भी आटोमेटिक पहुँच जाएगी। 10 साल से पुरानी डीज़ल गाडियो को बंद किया जा रहा है, क्योंकि प्रदूषण में इनका भी योगदान काफी हैं। साथ ही खुले में कूड़ा जलाने पर लगे प्रतिबंध को और सख्त बनाया जा रहा हैं

हालाँकि डीज़ल गाड़ियों के नए रजिस्ट्रेशन पर बैन जैसे कदम भी उठाए जा रहे हैं पर इसके साथ-साथ डीज़ल से चलने वाले कमर्शियल व्हीकल्स पर लगाम लगनी चाहिए और इलेक्ट्रिक व्हीकल्स को और ज़्यादा प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए


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शे`र: रूठते हैं कभी मान जाते हैं....

रूठते हैं कभी मान जाते हैं
कुछ ऐसे बेक़रार करते हैं

जो बोलना है, बोलते ही नहीं
वैसे बाते हज़ार करते है

- शाहनवाज़ 'साहिल'




फ़िलबदीह मुशायरा - 022 में आदित्य आर्य जी के मिसरे 'प्यार जो बेशुमार करते है' पर मेरे दो शे`र

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अपने विचार थोपने और ख़ुद सज़ा देने वाली सोच का विरोध करिये

अपनी सोच दूसरों पर थोपने और ख़ुद से सज़ा देने की सोच गुंडागर्दी है और इसका जमकर विरोध किया जाना चाहिए।

देश, पंथ या फिर धर्म इत्यादि में दिखावे की जगह दिल से मुहब्बत का जज़्बा होना चाहिए, दिखावा आम होने से लोग दूसरों पर अपनी राय को ज़बरदस्ती थोपने लगते हैं। इमोशनल ब्लैकमेल करके लोगों को इकठ्ठा करते हैं और फिर अपनी राय से अलग राय रखने वालों पर इसी तरह धावा बोलते हैं जैसे प्रोफ़ेसर कुलबर्गी या फिर दादरी के अख़लाक़ पर बोला गया था। मुंबई में सिनेमा में राष्ट्रिय गान बजते समय खड़े ना होने वाले परिवार को बेइज़्ज़त करने वाले मामले  को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।

जबकि इन तीनों या इन जैसे सभी मामलों में होना यह चाहिए था कि अगर कहीं पर कोई कुछ गलत कर भी रहा है तो कानून को अपने हाथ में लेने की जगह, कानून का सहारा लिया जाना चाहिए, पुलिस को सूचित करना चाहिए।

हमें अपनी सोच के विरुद्ध सोचने वालों के प्रति इन्साफ का रवैया अपनाने की ज़रूरत है, कानून और नैतिकता के दायरे में रहते हुए हर किसी को अपना मत ज़ाहिर करने, अपनी राय के मुताबिक़ ज़िन्दगी जीने का हक़ है और होना भी चाहिए। पर लोकतंत्र में अपनी राय को हर हाल में लागू करने वाली सोच का विरोध होना चाहिए। ऐसी सोच फासिस्ट अथवा तानाशाही विचारधारा से उत्पन्न होती है और सभ्य समाज में फासिज़्म अथवा तानाशाही को हरगिज़ स्थान नहीं मिलना चाहिए।

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असहिष्णुता नई नहीं है बल्कि सरकार का रवैया नया है....

रामगोपाल वर्मा और अनुपम खेर साहब के कहने का मतलब है कि अगर एक "हिन्दू बहुल राष्ट्र" में कोई 'मुस्लिम' एक कामयाब 'फिल्म स्टार' बन सकता है तो वहां "कुलबुर्गी, पानसरे जैसे लेखकों की हत्या और बाकी लेखकों को इन जैसा हश्र करने", "गाय के मांस खाने के नाम पर मारे जाने वाली घटनाएं", "छेड़खानी / धर्मपरिवर्तन की झूठी अफवाहें उड़ाकर" / "सांसदों, विधायकों के द्वारा व्हाट्सऐप इत्यादि के द्वारा भावनाएं भड़काकर", "सूअर / गाय के मांस के मंदिरों / मस्जिदों में मिलने पर होने वाले दंगों की बातें", "धर्म के नाम पर मकान / दूकान का ना मिलना", 'एक-दूसरे समुदाय के खिलाफ नफ़रत के कारण अलग-अलग बस्तियां बनाकर रहने" जैसी बातें ना केवल सरासर झूठी बल्कि मीडिया के द्वारा फैलाई साज़िशें होती हैं...

इसलिए सरकार को ऐसी घटनाओं को संज्ञान में नहीं लेना चाहिए, प्रधानमंत्री महोदय को ऐसी घटनाओं अथवा नफरत फैलाने के आरोपी नेताओं / विधायकों / सांसदों के खिलाफ सख्त सन्देश देने की कोई ज़रूरत ही नहीं है? 

हालाँकि यह सही है कि असहिष्णुता केवल पिछले अट्ठारह महीनों में नहीं आई है, जो आज असहिष्णु दिखाई दे रहे हैं वोह पहले से ही ऐसे हैं... फ़र्क़ सिर्फ इतना आया है कि मोदी सरकार यह मैसेज देने में फेल हुई है कि वह नफ़रत फैलाने वाले कट्टरपंथियों या फिर देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने वालों के ख़िलाफ़ है और उनसे सख्ती से निपटा जाएगा। जनता में इस विषय पर सरकार का गंभीर ना होने का मैसेज भी इसलिए गया क्योंकि पिछले कुछ महीनों में नफ़रत फैलाने वाले अधिकतर बयान भाजपा या फिर भाजपा समर्थक संगठनों के नेताओं की तरफ़ से आए हैं।

हर सरकार का काम आपसी सौहार्द को बढ़ावा देना, नफरत फैलाने वालों से सख्ती से निपटना और कानून का पालन ना करने वालों से सख्ती से निपटना होता है और हमें देश की सरकार से यह उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले समय पर वह उचित कदम उठाएगी! सरकार को यह चाहिए कि वह उससे यह उम्मीद या मांग करने वालों की मांग पर गंभीरता से विचार करे और यह सुनिश्चित करें कि वह देश को सुरक्षा का माहौल देने की अपनी प्रतिबद्धता का पूरी तरह से निर्वाहन करती रहेगी.

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'इस्लाम' किसी 'नाइंसाफी' को जायज़ नहीं ठहराता

इस्लाम में 'इंसाफ' बेहद अहम है, बल्कि इस्लामिक स्कॉलर्स मानते हैं कि रूह की तरह है, मतलब अगर 'इस्लाम' का कोई और नाम हो सकता है तो वोह 'इंसाफ' है। इसमें किसी भी तरह की छोटी सी भी 'नाइंसाफी' को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। जो लोग इस्लामिक बातों को तोड़-मरोड़ कर ऐसा करने की कोशिश करते हैं, दर-असल वोह कहीं ना कहीं आतंकी प्रोपेगेंडा का हिस्सा या फिर शिकार हैं। आज का समय खासतौर पर मुस्लिम जगत के लिए बेहद Crucial (महत्वपूर्ण) है, सतर्क रहने की ज़रूरत है। इसलिए जहाँ भी आपको लगे कि इस्लामिक बातों से किसी 'नाइंसाफी' को जस्टिफाई करने की कोशिश हो रही है तो उसे हरगिज़ सच नहीं माने और खूब अच्छी तरह तस्दीक़ करें।
हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि इस्लाम किसी क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरुप स्वयं 'सज़ा' देने की बात नहीं करता, मसलन अगर किसी को पता चले कि किसी व्यक्ति ने उसके परिवार वालों को मौत के घात उतार दिया तो वोह प्रतिक्रिया स्वरुप उसके परिवार को मार डाले। बल्कि इस्लाम में 'न्याय' का एक प्रोसेस बनाया गया है, अर्थात किसी का जुर्म साबित होने के बाद ही उसे सज़ा दी जा सकती है और सज़ा केवल प्रशासन के द्वारा ही दी जा सकती है!
#IslamAgainstTerrorism

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बेगुनाहों की मौत का बदला बेगुनाहों की हत्या करके नहीं लिया जाना चाहिए

क्या फ़्रांस के बेगुनाहों की मौत का बदला सीरिया के बेगुनाहों की हत्या करके लिया जा सकता है या लिया जाना चाहिए? गुनाह का बदला गुनहगारों से लिया जाना चाहिए ना कि बेगुनाहों से और दुनिया की किसी भी लड़ाई में आम नागरिकों के
मारे जाने का समर्थन नहीं किया जाता है और ना ही किया जाना चाहिए।

ISIS पर एक महीने से रशिया हमले कर रहा है और अब फ़्रांस ने भी हमले किये हैं, मगर परेशानी यह है कि इस तरह के हमलों से ISIS का कितना नुकसान हुआ यह पता लगाना मुश्किल है। ताज़ा हमलों में कई हज़ार आम नागरिक मारे जा चुके हैं, इससे आतंकवाद हरगिज़ खत्म नहीं होगा, बल्कि इसके और प्रबल होने की सम्भावना बढ़ जाएगी। अगर ISIS को ख़त्म करना चाहते हो तो उस के इलाकों पर सीधी लड़ाई करो और अगर दुनिया के मुल्क स्वयं सीधा हमला नहीं करना चाहते तो सीरिया और इराक़ सरकार की मदद करो।

यह पूरी इंसानियत के लिए शर्म की बात है कि 2011 से जारी इस लड़ाई में लाखों बेगुनाह नागरिकों की हत्या हो चुकी है, अगर इसका 1 या 2 पर्सेंट भी अमेरिका या यूरोपियन देशों में हुआ होता तो उस पर अब तक सारी दुनिया विचार-विमर्श कर रही होती!

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नफ़रत और आतंक का सामना विश्व को एकजुट होकर करना पड़ेगा

मासूमों के क़त्ल को किसी भी वजह से जायज़ ठहराना आतंकवाद का खुला समर्थन है... बहाने बताकर जायज़ ठहराने वालों की धूर्तता को पहचान लो, जाने-अनजाने यही लोग आतंक के पोषक हैं। बेगुनाहों के क़त्ल पर अगर-मगर करने वालों से दूरी बनाओ वर्ना पछताने का भी समय नहीं मिलेगा।

नफरत और आतंक एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए अगर इंसानियत को बचाना है तो नफ़रत और आतंक के ख़िलाफ़ पूरे विश्व को एकजुट होना पड़ेगा आज एक होने की ज़रूरत है, एकजुट होकर लड़े बिना इंसानियत के हत्यारों को समाप्त करना नामुमकिन है 

मेरा-तुम्हारा नहीं चलेगा, इंसाफ का तकाज़ा ही यह है कि बेगुनाहों के हर हत्यारों को उनके कुकर्म की सज़ा मिलनी चाहिए और आतंक का खत्म इसके बिना हो भी नहीं सकता है... हर तरह के आतंक का सफाया करना ज़रूरी है, फिर चाहे किसी संगठन के द्वारा चलाया जा रहा हो या फिर किसी देश के द्वारा पोषित हो।

मगर आतंक के खात्मे के लिए सजा गुनाहगारों को ही मिलनी चाहिए, इसके लिए आम लोगों पर मिसाइलें गिरा कर उनकी हत्याओं की इजाज़त भी नहीं होनी चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि फ़्रांस के बेगुनाहों की मौत का बदला सीरिया के बेगुनाहों की हत्या करके नहीं लिया जा सकता और ना ही लिया जाना चाहिए!

‪#‎CondemnParisAttack‬ ‪#‎CondemnAllTerrorism

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पुरुस्कार वापसी पर 'यूपीए की अन्ना आंदोलन वाली' गलती दोहरा रही है मोदी सरकार

देश के बुद्धिजीवियों के द्वारा पुरुस्कार वापसी को कांग्रेस प्रायोजित कहना बिलकुल उसी तरह की कुटिलता दर्शाता है जैसा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन के समय कांग्रेस सरकार ने उसे आर.एस.एस. (राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ) के द्वारा प्रायोजित बताया था। जबकि होना यह चाहिए कि अगर 'मुद्दा' सही है और खासतौर पर जनता को 'सही' लग रहा है तो उसके विरोध की जगह बातचीत की जाए और उचित कदम उठाए जाएं, फिर इस बात से क्या फर्क पड़ता है, चाहे उसके पीछे कोई हो या नहीं हो। राजनैतिक दलों को यह समझना चाहिए कि इस तरह के आन्दोलनों को सुलझाने की जगह जितना दबाने और बदनाम करने की कोशिश की जाती है वह उतने ही तेज़ी से जनआंदोलन बनते जाते हैं।

कांग्रेस सरकार यही सोच कर बैठी रही, इसी बात पर अड़ी रही, यहाँ तक कि उसने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि भ्रष्टाचार का मुद्दा जनता के दिलों में घर करता जा रहा है और उसका खामियाज़ा उसे चुनाव में भुगतना पड़ा, अगर यह मान भी लिया जाए कि उसके पीछे RSS था तब भी भ्रष्टाचार एक ज़रूरी मुद्दा था और वोह भी खासतौर पर इसलिए क्योंकि उस समय भ्रष्टाचार पर चर्चा चरम पर थी। किसी भी सरकार को ऐसे समय बातचीत और जनता की मांगों पर अमल की नीति अपनानी चाहिए, ज़बरदस्ती दबाने की कोशिशें जनता को नागवार गुज़रती आई हैं और आगे भी नागवार गुज़रती रहने वाली हैं।

जो 'अकड़' पहले यूपीए को ले डूबी थी, वही अब एनडीए की गले की फंस बनती जा रही है। लेखकों की अभिव्यक्ति का दमन और भाजपाई नेताओं के दूसरे समुदाय के खिलाफ को भड़काऊ बयान सबको नज़र आ रहे हैं, मगर सरकार को नज़र ही नहीं आ रहे हैं, यहाँ होना तो यह चाहिए था कि सरकार ऐसे तत्वों पर रोक लगाने की नीति अपनाए और जनता मैं इसका मैसेज भेजे मगर इसके उलट सरकार के मंत्री लेखकों के इस आंदोलन को देश की अस्मिता से जोड़ने लगे और इससे जुड़े लोगों को देशद्रोही ठहरने लगे। जबकि यह समझना चाहिए कि अब भाजपा विपक्ष नहीं है, बल्कि सरकार में है। इसलिए उसके नेताओं या विचारधारा से जुड़े लोगों के बयान सरकार का नजरिया माना जा रहा है, खासतौर पर इसलिए भी क्योंकि सरकार या पार्टी की तरफ से ऐसे लोगों को चुप कराने के प्रयास नहीं किये गए और ना ही लेखकों से संवाद कायम करके अभिव्यक्ति का दमन करने वालों से निपटने की बात कही गई।

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चार 'अ'के कारण हारी भाजपा बिहार

मुझे लगता है कि बिहार में भाजपा की इस हार में 'असंवेदशीलता', 'आरक्षण', 'अमित शाह' और 'अखलाक़' ने मुख्य भूमिका निभाई मतलब भाजपाई नेताओं की असंवेदनशील भाषणबाज़ी, आरक्षण के विरुद्ध मोहन भगवत का बयान, अमित शाह की घमंड भरी भाषा और अखलाक़ की मौत की सियासत...

मैं नितीश को एक अच्छा व्यक्ति मानता हूँ, मगर आरजेडी का ज़्यादा सीट लाना बिहार के लिए चिंतनीय प्रतीत हो रहा है हालाँकि जनादेश के बाद लालू जी से भी अब यही उम्मीद करनी चाहिए कि वोह उसी तरह बिहार की प्रगति में सहायक बनेंगे जैसे उन्होंने भारतीय रेलवे की प्रगति में अभूतपूर्व भूमिका निभाई थी

इस चुनाव से यह सीख भी मिलती है कि आज के नए दौर में नेगेटिव पॉलिटिक्स वहीँ कारगर हो सकती है जहाँ जनता किसी के खिलाफ हो! जैसा कि लोकसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस के खिलाफ नेगेटिव प्रोपेगेंडा को पसंद किया था, मगर जहाँ लोग किसी के खिलाफ नहीं हैं वहां इस तरह की नेगेटिव स्ट्रेटेजी का यही हाल होना था जो पहले दिल्ली में केजरीवाल और अब बिहार में नितीश कुमार के खिलाफ भाजपाई स्ट्रेटेजी का हुआ

आज भाजपा में मोदी की स्थिति उस समय की क्रिकेट टीम में सचिन जैसी हो गई है, जहाँ सचिन के ऊपर पूरी टीम डिपेंड हो गई थी और जब वोह अच्छा करते थे तो टीम जीत जाती थी वर्ना हार जाया करती थी।

नफरत के द्वारा सत्ता हथियाने की कोशिशों का हारना अच्छी पहल है, वर्ना देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण मुद्दा बनता और करप्शन ख़त्म करना तथा तरक्की की ओर बढ़ना नामुमकिन होता चला जाता।


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क्या यह लोकतंत्र है?

हम 50-55 प्रतिशत वोटिंग पर खुश हो जाते हैं और तर्क देते हैं कि यह पहले से ज़्यादा है और उस पर 20-30 प्रतिशत वोट लेने वाले प्रतिनिधि नियुक्त हो जाते हैं... पर क्या इतने कम वोटों से चुना गया व्यक्ति वाकई में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि इस सिनेरियो की जड़ में जाया जाए तो पता चलता है कि विजयी प्रत्याशी के समर्थकों की तुलना में विरोधी कई गुना ज़्यादा होते हैं?


क्या यह चिंतनीय नहीं है कि देश में लोकतंत्र आने के इतने साल बाद भी यह हाल है? और क्या इस स्थिति को 'लोकतंत्र' कहा भी जाना चाहिए?

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न्याय की भावना से दूर होते हैं कट्टरपंथी

कट्टरपंथी चाहे हिन्दुस्तानी हों, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी या फिर कहीं और के... इन सब का मिजाज़ एक ही होता है। इनमे मानने का जज़्बा नहीं होता, मनवाने का होता है। यह लोग अपने खिलाफ उठी आवाज़ को हरगिज़ बर्दाश्त नहीं कर सकते। न्याय का इनसे दूर का भी वास्ता नहीं होता और यह स्वयं सज़ा देने में विश्वास करते हैं।
चाहे आस्तिक हों या नास्तिक यह लोग धर्म को केवल अपनी इगो शांत करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, अगर इनको बताया जाए कि उनकी सोच धर्म विरोधी है तो हरगिज़ नहीं मानेंगे।

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ईधी साहब से मानवता का सबक सीखना चाहिए



सिर्फ विरोधियों को ही नहीं बल्कि मुसलामानों को भी ईधी साहब से सीखना चाहिए कि
‪ इस्लाम‬ इंसानी हुक़ूक़ को ज़यादा अहमियत देना सिखाता है। दूसरों के हक़ अता करना और अपने हुक़ूक़ माफ़ करना सिखाता है... धैर्य, क्षमा और न्याय का हुक्म देता है। ईधी साहब के मानवता के सन्देश पर सिर्फ वाहवाही करने की नहीं बल्कि आत्मसात करने की ज़रूरत है!


मुहम्मद (स.) फरमाते हैं (व्याख्या) 'जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई' और एक जगह कहते हैं कि वह न्याय के दिन ऐसे लोगो के विरोधी होंगे" (बुखारी)

और क़ुरआन में अल्लाह ने बताया "...किन्तु जिसने धैर्य से काम लिया और क्षमा कर दिया वह उन कामों में से हैं जो (सफलता के लिए) 'आवश्यक' ठहरा दिए गए हैं। [42:43]"

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फिर कोई ‪‎कुत्ता‬, कोई कुत्ते का पिल्ला हो गया...

क्या कहूँ हाकिम का यूँ ज़मीर ढिल्ला हो गया

मिंटो-सेकिंडो में ही हर शेर बिल्ला हो गया


इन्तख़ाबों में तो थे हम 'आँख के तारे' सभी

फिर कोई ‪‎कुत्ता‬, कोई कुत्ते का पिल्ला हो गया


- शाहनवाज़ सिद्दीक़ी

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हमारे देशप्रेम का इससे बढ़कर और क्या सबूत होगा कि हमने देश से मुहब्बत को 'चुना' है!

जिन्होंने पाकिस्तान माँगा उन्हें दिया गया और वोह चले गए, जिन्हें देश से मुहब्बत थी उन्होंने ना माँगा और ना ही मांगने वालों का साथ दिया... और यह इस बात का सबूत भी है क्योंकि जो भी मुसलमान हिन्दुस्तान में रुके उन्होंने देश से मुहब्बत को चुना है, जबकि हम पर संदेह के ज़हर भरे तीर चलाने वाले और राष्ट्रद्रोह की डिग्रियां बांटने लोगों की देश के प्रति निष्ठा जानने के लिए बस उनके अलफ़ाज़ ही काफी हैं। 

हैरत की बात यह भी है कि दूसरों को देशद्रोही ठहरने वालों का देश की आज़ादी में कोई योगदान भी नहीं है, जबकि हमारे बुज़ुर्गों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ जिहाद छेड़ा था, उनके हाथों अपने सर कलम करवाना मंज़ूर किया था लेकिन झुकना हरगिज़ मंज़ूर नहीं किया था.

इस मौज़ूं पर राहत इंदौरी साहब ने क्या खूब लिखा है:
सभी का ख़ून है शामिल यहां कि मिट्टी में,
किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है

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अभिजीत ने दिखाया है गुलाम अली से भाईचारा :P


गायक अभिजीत के द्वारा गुलाम अली साहब को बेशर्म और डेंगू के मच्छर कहने पर नाराज़ मत होइए... ऐसा तो अक्सर होता है कि लोग 'दूसरों' को 'खुद' की तरह समझते हैं, मेरे भाई इसे ही तो '‎भाईचारा'‬ कहते हैं... :P 




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कहाँ हैं खुद को दिल्ली सरकार का मुखिया बताने वाले LG?


दिल्ली में डेंगू के प्रकोप के चलते मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम लगातार कड़ी दौड़भाग करते नज़र आ रहे हैं, मगर स्वयं को दिल्ली सरकार का प्रमुख बताने वाले नजीब जंग पता नहीं कहाँ गायब हैं?... हाँ ऐसे समय में भी उनका अधिकारियों को मुख्यमंत्री का आर्डर ना मानने का फरमान ज़रूर दिखाई दिया।

वहीँ दिल्ली एमसीडी पर काबिज़ भाजपा भी नदारत है और आपदा में नेपाल तक की मदद को आतुर केंद्र सरकार भी दिल्ली में अभी तक राज्य सरकार की मदद की जगह राह में रोड़े ही अटकाती नज़र आ रही है।

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दहशतगरों के हाथ में 'इस्लाम'‬ नहीं है

नाहक़ के साथ दीन का ‪'‎पैग़ाम'‬ नहीं है
दहशतगरों के हाथ में ‪'इस्लाम'‬ नहीं है

उठ-उठ के मस्जिदों से गए हैं जो ‪'‎नमाज़ी‬'
लौटेंगे अगली ‪अज़ाँ‬ पर, ‪'नाराज़'‬ नहीं हैं
- Shahnawaz Siddiqui

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आरक्षण का मक़सद

आरक्षण का मक़्सद गरीबी का उत्थान हरगिज़ नहीं है बल्कि सदियों से जानवरों जैसी ज़िल्लत झेल रही क़ौमों को बराबरी पर ला खड़ा करने की कोशिश है। और इस आधार पर मैं मुसलामानों को आरक्षण देने के ख़िलाफ़ हूँ क्योंकि इस्लाम ग़ैरबराबरी नहीं सिखाता और सभी लोग मस्जिदों में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं। और फिर मुस्लिम तो स्वयं ही 'ज़कात' के द्वारा गरीबों को सशक्त बनाने की कोशिशों का दावा करते हैं। फिर आरक्षण की मांग क्यों?

जहाँ तक बात आरक्षण की ज़रूरत की है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का मक़्सद अन्य लोगों के मुक़ाबले इन जातियों के सदियों से चले आ रहे शोषण के कारण अंदर पैठ बना चुकी हीन भावना और उसके कारण रुके बौद्धिक विकास के फासले को पाटना है। इसके लिए सामाजिक भेदभाव खत्म होने के बाद भी कम से कम 1-2 पीढ़ियों तक शैक्षिक संस्थानों एवं नौकरियों में आरक्षण जारी रखना ज़रूरी है, तभी वोह लोग मुक़ाबले में बराबर की टक्कर देने की स्थिति में आ पाएंगे।

अगर बात गरीबों की करें तो उन्हें बिना आरक्षण दिए ही सपोर्ट की जा सकती है, गरीबी के उत्थान करने एवं शोषण समाप्त करने के लिए आर्थिक तौर से सशक्त बनाए जाने की आवश्यकता है तथा इसके साथ-साथ सरकारी शैक्षिक संस्थानों को मज़बूत करना बेहद आवश्यक है। पहुँच से दूर वाली आवश्यक वस्तुओं के लिए सभी सरकारें सब्सिडी भी देती ही हैं! ज़रूरत इस तरह के फैसले करने और कार्यान्वन के लिए अमल के तरीकों में बदलाव लाने की है।

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क्या आपको पटेल समुदाय के इस आरक्षण आंदोलन पर संदेह नहीं होता?

कोई भी सरकार इतनी भारी भीड़ होने के बावजूद इस तरह लोगों को भड़काने की कोशिश नहीं करती है, कहीं यह सब जानबूझ कर तो नहीं हो रहा है? सवाल यह भी है कि कम से कम ‪गुजरात‬ में तो ‪संघ‬ की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता फिर यह तो‪ तूफ़ान‬ सरीखा है, आख़िर यह अंजाम तक कैसे पहुंचा कि ना तो संघ को इसकी भनक लग पाई और ना ही सरकार को।

हैरत करने वाली बात यह भी है कि आज के ज़माने में 'ना' के बराबर सरकारी नौकरी वाले ‪'आरक्षण‬' के लिए एक अमीर क़ौम (पटेल) की इतनी मारा-मारी, इतना बड़ा आंदोलन? कहीं यह सब ‪समस्याओं से ध्यान हटाने या फिर '‎आरक्षण‬' जैसे प्रावधान के प्रति लोगों में नफरत बढ़ाने जैसा कोई बड़ा और पूर्वनियोजित षड्यंत्र तो नहीं है?

और इस हैरानगी के पीछे की सोच यह है कि बिना आरक्षण के ही गुजरात में केवल 20 फीसदी आबादी वाले 'पटेल समुदाय' के वर्तमान में 41 विधायक, 8 मंत्री, मुख्यमंत्री, 16 IAS, 10 IPS, 34 SP, राज्य सचिवालय में 100 ऑफिसर हैं... तथा यह प्रदेश में सबसे ज्यादा धनवान कम्युनिटी है, विदेशो में सबसे ज्यादा व्यापर पर काबिज है, हीरा व्यापार पर ज्यादातर इन्ही का कब्ज़ा है, इसके अलावा गुजरात का सबसे ज्यादा दबंग समुह होने के बावजूद इतना बड़ा हंगामा?

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चालान के साथ चाल-चलन भी घर पहुंचा :P

एक बेचारा नोएडा एक्सप्रेस-वे पर कार से अपनी गर्लफ्रेंड के साथ आगरा जा रहा था (यह अलग बात है कि वोह शादी-शुदा है)।एक्सप्रेस-वे पर जब उसकी कार एक ट्रैफिक सिग्नल पर तेज गति से निकली तो सीसीटीवी कैमरे से फोटो खिंच गई। इसके बाद ई-चालान बना और उसके घर पहुंच गया। अब परेशानी यह हुई कि चालान उसकी पत्नी को मिला, जिसमें गर्लफ्रेंड के साथ उसकी तस्वीर थी! tongue emoticon

 — feeling यह बेचारा तकनीक का मारा.




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इस्लाम‬ की बुनियाद



दुनिया के शुरू से ही ‪इस्लाम‬ की बुनियाद तौहीद अर्थात "ला'इलाहा इल्लल्लाह"  है, जिसका तात्पर्य है कि इस ब्रह्माण्ड की हर चीज़ कुछ भी करने में ‪‎ईश्वर‬ की मोहताज है! मतलब 'सूर्य‬' रौशनी देने या ‪'पृथ्वी‬' जीवन देने में उसके हुक्म के मोहताज है, क्योंकि पॉवर सेंटर केवल एक ‎अल्लाह‬ है... इसका मतलब यह हुआ कि बाकी चीज़ें प्रशंसनीय तो हो सकती हैं परन्तु पूजनीय नहीं!

उदहारण के लिए अगर हम सूर्य की प्रशंसा करते हैं कि इसमें उसके बनाने वाले की प्रशंसा भी स्वत: ही निहित हो जाती है पर अगर हम यह सोच कर चलते हैं कि सूर्य स्वयं में एक ताकत है जिससे हमें कोई फायदा पहुँच सकता है तो यह उसकी पूजा तथा उसके पावर सेंटर और क्रिएटर की अवहेलना हुई! अगर 'सृजन' (Creation) की प्रशंसा में 'सर्जक' (Creator) की भूमिका का भी एहसास है तो यह सही है पर अगर 'सृजन' की प्रशंसा करते समय उसे 'सर्जक' की उपमा दे दी जाए तो यह मिथ्या बात हुई!

अल्लाह क़ुरआन में फ़रमाता है कि उसने "ला'इलाहा इल्लल्लाह" की शिक्षा देने के लिए चार पूरी किताबें और कई पृष्ठ (सहीफ़े) उतारे। उसने दुनिया के हर कोने, हर समाज में अपने नेक बन्दों को मैसेंजर बनाकर भेजा जो उन्ही की भाषा में लोगों को समझाते थे और उस समझाने के एतबार से ही उस वक़्त के लोगों की ज़िन्दगी को उनका इम्तहान बनाया गया और उसी पर 'इंसाफ के दिन' पास या फेल पर फैसला होगा!

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'ॐ' और 'अल्लाह‬' में गज़ब की समानता



ॐ को अगर 90 डिग्री पर दाई ओर रोटेट किया जाए तो लफ्ज़ ‪#‎अल्लाह‬ बन जाता है!...





आपका क्या कहना है?

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तो क्या भाजपा प्रशंसकों को भारतीय होने पर शर्म आती थी?

मतलब क्या प्रधानमन्त्री महोदय यह कहना चाहते हैं कि भाजपा प्रशंसकों को इस सरकार के आने से पहले ख़ुद के भारतीय होने पर शर्म आती थी? 


अनेक कमियों के बावजूद हमारे देश की कंडीशंस हमेशा ऐसी रहीं हैं कि हम उसपर गर्व कर सकें! हालाँकि हम खुद भी देश में #Corruption, गरीबों / महिलाओं पर होने वाले अत्याचार, सांप्रदायिक द्वेष / दंगे जैसी बहुत सी बातों के विरोधी हैं। हम आपस में अनेकों बातों पर लड़ते-भिड़ते भी हैं, मगर इसका मतलब यह नहीं कि खुद के भारतीय होने पर शर्म जैसी बातें करते फिरें और खासतौर पर विदेश में जाकर ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करें जिससे देश शर्मसार हो! 

यह एक ऐसा बयान है जिसे देश के प्रधानमंत्री पद पर सुशोभित व्यक्ति तो क्या कोई आम नागरिक भी कभी नहीं देना चाहेगा! देश की संप्रभुता हमेशा से दलगत राजनीति से ऊपर रही है और भविष्य में भी हर हाल में रहनी चाहिए!


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी इस भारी भूल पर क्षमा मांगनी चाहिए!




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इस्लाम का सबसे मज़बूत अमल मुहब्बत है!



हज़रत मुहम्मद (स.) ने मालूम किया कि दीन का सबसे मज़बूत अमल क्या है?
आपके सहाबा (साथियों) ने जवाब दिया कि "नमाज़"
आपने कहा "नहीं"
सहाबा ने कहा "रोज़ा"
आपने कहा "नहीं"
सहाबा ने कहा "ज़कात"
आपने कहा "नहीं"
तो सबने कहा या रसूल्लाह (स.) फिर आप ही फरमाएं...
तब आप (स.) ने जवाब दिया कि "इस्लाम का सबसे मज़बूत अमल मुहब्बत है!"

('अहमद' व 'अबुदाऊद' )


हज़रत मुहम्मद (स.) ने मालूम किया कि इस्लाम का सबसे मज़बूत अमल क्या है?आपके सहाबा (साथियों) ने जवाब दिया कि "नमाज़"आपने कह...
Posted by Shah Nawaz on Monday, April 6, 2015

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किसी धार्मिक स्थल पर हमले का समर्थन घटिया सोच है?

विश्व हिंदू परिषद के संयुक्त महासचिव सुरेंद्र जैन का तात्पर्य है कि चर्च तोड़कर हनुमान मूर्ति इसलिए रखी गई क्योंकि जिस गांव में चर्च पर हमला हुआ है उसमें या उसके आसपास कोई ईसाई नहीं रहता...


वैसे इन महाशय की पाकिस्तान में मंदिरों को तोड़ने वाली शर्मनाक घटनाओं पर क्या प्रतिक्रिया होती होगी?


यह कैसी सोच है कि धर्म स्थल जगह की उपलब्धता की जगह वहीँ बनाएं जाएं जहाँ उस समुदाय के लोग रहते हैं? और अगर कल को उक्त समुदाय के लोग किसी कारणवश पलायन कर जाएं तो क्या उनपर कब्ज़ा कर लिया जाना चाहिए या फिर तोड़-फोड़ जैसी शर्मनाक हरकत की जाए?

अगर दिल्ली की बात की जाए तो कई ऐसे ईसाई चर्च मैंने देखें हैं जहाँ आस-पास ईसाई नहीं रहते हैं, हो सकता है ऐसा जगह की उपलब्धता के कारण हो या कोई भी कारण हो, कोई कारण इस तरह तोड़फोड़ और मूर्ति स्थापित करने को जायज़ ठहरा भी नहीं सकता है।

हमारे देश में कानून है और हमें उसके हिसाब से ही चलना भी चाहिए, खासतौर विवादित जगहों पर टकराव की जगह प्रशासन को बीच में लाकर बातचीत होनी चाहिए।

वैसे भी बिना प्रशासन की अनुमति के तो वहां चर्च बना नहीं होगा। और अगर बिना अनुमति के बना हो, तब भी पहले क़ानूनी कदम उठाए जाने चाहिए थे।

हालाँकि मैं मानता हूँ कि उन्मादि भीड़ को नियंत्रित करना आसान नहीं है, पर मुद्दा यह है कि भीड़ ने वहां जो किया उसके विरोध किया जाना चाहिए या समर्थन।

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'चापलूस‬' व्यक्तित्व की दीमक होते हैं

जिस तरह ‪#‎दीमक‬ खामोशी के साथ हरे-भरे पेड़ को खोखला कर देती है, उसी तरह ‪#‎चापलूस‬ बड़े से बड़े व्यक्तित्व का नाश कर देते हैं।

देखा जाए तो ‪#‎आलोचक‬ ही असल ‪#‎शुभचिंतक‬ होते है!

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विकास में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए


देश और मुस्लिम समाज के लिए ज़रूरी है कि तरक़्क़ी की कोशिशो में महिलाओं की और भी ज़्यादा भागीदारी सुनिश्चित की जाए और यह उनको उनके हुक़ूक़ से महरूम रखकर पॉसिबल नहीं हो सकता।


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साम्प्रदायिकता 'भ्रष्टाचार' की ढाल है


दिल्ली नतीजों के गूढ़ में निहित हैं कि जनता आज भी सांप्रदायिक ताकतों की घिनौनी राजनीति के खिलाफ है। देश का 'आम आदमी' यह जान चुका है कि 'साम्प्रदायिकता' और कुछ नहीं बल्कि भ्रष्टाचार की ढाल है। 

सम्प्रयदाय अथवा ज़ात-पात की राजनीति करने वाले हमें इन मुद्दों में घुमाए रखना चाहते हैं, जिससे कि सत्ता सुख भोगने का उनका मक़सद आसानी से हल होता रहे और उनके द्वारा फैलाए जा रहे भ्रष्टाचार के जाल पर किसी का ध्यान ना जा पाए।

यह नतीजें राजनेताओं के लिए सन्देश है कि देश का युवा जागरूक हो रहा है, जो किसी भी कीमत पर खुद को बेवक़ूफ़ बनाने वालों को और बर्दाश्त नहीं करना चाहता!

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तेल का खेल

सरकार ने पिछले ढाई महीने में तीन बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई है, अगर यह एक्साइज ड्यूटी न बढ़ाई जाती तो पेट्रोल 5.75 रुपये और डीजल 4.50 रुपये और सस्ता होता।

हाल के महीनों में क्रूड ऑयल के मंदी के दौर में पहुंचने के कारण इसकी कीमत में लगभग 37 पर्सेंट गिरावट आई है, मगर देश में अभी तक पेट्रोल की कीमतों में करीब 11 प्रतिशत और डीजल में केवल 8 प्रतिशत की कमी ही की गई है।

और उसपर विज्ञापन तेल की कीमतों में राहत के दिए जा रहे हैं! :P


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