निकाह की 'हाँ'



हमारे देश के मुस्लिम समुदाय में विशेषकर उत्तर भारत में लड़कों और खासकर लड़कियों से शादी से पहले अकसर उनकी मर्ज़ी तक मालूम नही की जाती है, एक-दुसरे से मिलना या बात करना तो बहुत दूर् की बात है... रिश्ते लड़के-लड़की की पसंद की जगह माँ-बाप या रिश्तेदारों की पसंद से होते हैं. ऐसी स्थिति में निकाह के समय काज़ी के द्वारा 'हाँ' या 'ना' मालूम करने का क्या औचित्य रह जाता है???


शादी के बाद पति-पत्नी विवाह को नियति समझ कर ढोते रहते हैं और हालत से समझौता करके जीवनी चलाते है...

मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम‌) ने शादी का प्रस्ताव देने वाले को वसीयत की है कि वह उस महिला को देख ले जिसे शादी का प्रस्ताव दे रहा है। मुग़ीरा बिन शोअबा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने एक औरत को शादी का पैगाम दिया तो इस पर नबी (स.) ने फरमाया:

 
“तुम उसे देख लो क्योंकि यह इस बात के अधिक योग्य है कि तुम दोनों के बीच प्यार स्थायी बन जाये।’’
इस हदीस को तिर्मिज़ी (हदीस संख्या: 1087) ने रिवायत किया है और उसे हसन कहा है तथा नसाई (हदीस संख्या: 3235) ने रिवायत किया है।

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परिस्थितियों को आत्म विश्वास से करें काबू



जब आपका मजाक उड़ाया जाता हैं तब इसको नियति ना बनने दें, बल्कि ऐसी परिस्थिति में इस चुनौती को आप अपने दृढ़ विश्वास के द्वारा और भी अधिक आसानी से अपने हित में कर सकते हैं.

मजाक उड़ाना एक नकारात्मक प्रतिक्रिया है, जिसके कारण सकारात्मक प्रवत्ति के लोग दुगने वेग से आपके पक्ष में आएँगे - Shah Nawaz

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