कुछ भी तो नहीं बदला है



इतने नारों और इतनी कवायदों के बाद भी कुछ नहीं बदला है... शर्म का मुकाम तो यह है कि हम पुरुष आज भी सड़कों पर लड़कियों को घूरते, उनपर फिकरे कसते नज़र आ रहे हैं... बलात्कारी आज भी टारगेट तलाश रहे हैं और उन्हें रोक सकने वाले आज भी मुंह को सिल कर और हाथों को बाँध कर अपने-अपनी राह पकड़ रहे हैं... 



लड़कियां आज भी घरों से निकलते हुए डरती हैं... और समाज आज भी बलात्कार पीड़ित लड़कियों को ही गुनाहगार समझ कर रोजाना बे-आबरू  कर रहा है... 


यहाँ तक कि पुरुष बलात्कार का तमगा लगाए गर्व से टहल रहे हैं, घर वाले, जान-पहचान वाले आज भी बलात्कारियों का बचाव करते नज़र आ रहे हैं...


कुछ भी तो नहीं बदला है... कहीं उम्मीदें बेमानी तो नहीं हैं...

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पता नहीं उनका क्या मकसद था?


कुछ लोग दिल्ली में चलती बस में हुए गैंग रेप की पीड़िता को इन्साफ दिलाने  के लिए प्रदर्शन में हिस्सा लेने गए थे, तो कुछ लोग बस यूँ ही गए थे, सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने. 

लेकिन मेरे जैसे बहुत सारे लोग केवल उस गैंग रेप पीड़िता को ही इन्साफ दिलाने की नियत से नहीं बल्कि देश की हर एक महिला को 'महिला' होने का अंजाम भुगताने को आतुर लोगो के खिलाफ सख्त से सख्त कानून बनाने और उसको जल्दी से जल्दी अमल में लाने की प्रक्रिया के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए गए थे. 

बल्कि महिलाओं ही क्यों, मेरा आन्दोलन तो हर एक को जल्द से जल्द न्याय और मुजरिमों को सख्त से सख्त सज़ा के लिए है. 


और विश्वास करिये हम लोग हिंसक नहीं थे, क्योंकि हम तो खुद हिंसा के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे.... लेकिन यह भी सच है कि हम से कहीं ज़्यादा संख्या में लोग वहां हिंसक प्रदर्शन कर रहे थे, पता नहीं उनके उस प्रदर्शन का क्या मकसद था?


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आई आई "एफ डी आई"




जो लोग रिटेल में एफ.डी.आई. का समर्थन कर रहे हैं वह ज़रूरत से ज़्यादा उमीदें पाल रहे हैं  और जो विरोध कर रहें वह कुछ ज़्यादा ही नकारात्मकता दिखा रहे हैं। एफ.डी.आई. देश के लिए अच्छी हो सकती है, बशर्ते बहुत ही ज़्यादा सतर्कता और सजगता अपनाई जाए। 

अनेकों फायदे नुकसानों के बावजूद वैश्विक व्यापारिक समीकरणों को देखकर लगता है कि आज नहीं तो कल, इसे अपनाना ही पड़ेगा। ।

यहाँ तक कि भाजपा जैसे जो राजनैतिक दल विरोध कर रहे हैं, उनका विरोध भी केवल दिखावा भर है। 

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पुरुष प्रधान समाज हैं महिलाओं के दोयम दर्जे का ज़िम्मेदार

हमारा समाज हमेशा से पुरुष प्रधान रहा है और इसी पुरुष प्रधान समाज ने धर्मों को अपनी सहूलत के एतबार से इस्तेमाल किया, जहाँ दिल किया वहीँ कृतिम डर दिखा कर नियमों को ऐसे तब्दील कर दिया कि पता भी नहीं चले कि असल क्या है और नक़ल क्या। यहाँ तक कि बड़े से बड़ा दीनदार (धार्मिक व्यक्ति) भी यह सब इसलिए सहता है कि यह सब नियम पुरुष प्रधान ठेकेदारों ने धर्म की आड़ लेकर बनाएं हैं। धर्म के नाम पर कट्टरता दिखाने वाले भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि महोलाओं का शोषण करने वाले नियम किसी धर्म का हिस्सा नहीं बल्कि पुरुष प्रधान सोच के ठेकेदारों की अपने दिमाग की उपज है।

और ऊपर से तुर्रा यह कि अगर कोई इनके खिलाफ आवाज़ उठाए तो सही राह पर होकर भी अधर्मी है।




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शर्तों पर दोस्ती


मैं दोस्ती इस शर्त पर नहीं करता कि उनकी हाँ में हाँ मिलाऊं और ना ही इस उम्मीद पर कि मेरे दोस्त मेरी हाँ में हाँ मिलाएं।

हर किसी की अपनी शख्सियत, अपनी सोच और अपनी अक्ल है। ऐसे में यह बेमानी शर्त विचारों के साथ ज़बरदस्ती सी लगती है!

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मीडिया का फंडा 'एक और एक ग्यारह'


जबसे इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया ने देश में पैर पसारे हैं, तब से खबर को सनसनी बनाने और केवल सनसनी को ही खबर के रूप में दिखाने का कल्चर भी पैर पसार गया है. किसी भी खबर को सनसनी बनाने के चक्कर में मीडिया 'एक और एक दो' को 'एक और एक ग्यारह' और कई बार 'एक सौ ग्यारह' बनाने में तुला रहता है, जिसके कारण बात का बतंगड बनते देर नहीं लगती.



जिसके चलते मीडिया की रिपोर्ट पर आँख मूंद कर विश्वास करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता जा रहा है...


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आप कैसे नेता हैं?


एक नेता के बेटे ने नेता जी से मालूम किया -


"पिता जी आप तो कहते थे कि आप भी राजनीति में हैं"


नेता जी ने कहा  - 
"वो तो मैं हूँ"






बेटा तपाक से बोला

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"आप कैसे नेता हैं? केजरीवाल ने तो एक बार भी आपके घोटालों की पोल नहीं खोली!"

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मलाला युसूफजई प्रकरण - क्या बदल पाएगी लोगो की सोच?

मलाला युसूफजई के जज्बे और कोशिशों को सलाम और साथ ही उसका समर्थन करने वाली पाकिस्तानी अवाम पाईन्दाबाद। बस मलाला जैसी कोशिशें करने वालों की तादाद कम ना होने पाए और इसका समर्थन करने वाले दुनिया भर के लोग बस 'समर्थन भर' करने की जगह उसकी सोच को अपनी सोच बना लें, सही और गलत का फर्क करना सीख जाएं, यही रब से दुआ है।

लेकिन इसके साथ-साथ इसकी उड़ान को रोकने की कोशिश करने वालों के खिलाफ भी तो सख्त से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए। इस बच्ची के समर्थन में तो वहां की सरकार नज़र आ रही है, लेकिन उन लोगो के खिलाफ क्या कार्यवाही हुई? और उन जैसी सोच रखने वाले लोगो का क्या? उनकी सोच को कैसे दुरुस्त किया जा सकता है? इस तरफ भी तो कदम बढाने की आवश्यकता है।

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बिना तथ्य के आरोप लगाने से किसको फायदा?

कानून मंत्री  की प्रेस कांफ्रेंस के बाद मुझे इस बात में कोई संदेह नज़र नहीं आता है कि उनके ट्रस्ट ने विकलांगों को सामान बांटने के लिए कैम्प लगाए. हालाँकि हस्ताक्षर असली हैं या नकली यह साबित होना बाकी है. इसलिए मैं अपने फेसबुक स्टेटस को वापिस लेता हूँ जिसमें मैंने कहा था कि -

 

Shah Nawaz
Yesterday

विकलांगों को भी नहीं बख्शते सत्ताधीश... आम आदमी की तो बिसात ही क्या!




हालाँकि कोई और तथ्य सामने आएगा तो इस स्टेटस पर भी विचार किया जा सकता है।

साथ ही मैं आरोप लगाने वालों से अनुरोध करता हूँ कि बिना जल्दबाजी के तथा तथ्यों की पूरी जांच-परख करके ही किसी पर कोई आरोप लगाएँ जाएँ। सियासी नफा-नुक्सान के लिए हलके स्तर के आरोप लगाना सियासी लोगो का काम है और इसी कारण उनपर जल्दी से कोई विश्वास नहीं करता है। इस तरह के तथ्य रहित आरोपों से उल्टा सियासतदानों को ही फायदा पहुँचने वाला है।

मेरा मानना है कि बदलाव की कोशिश करने वालों को लीक से हटकर नई सोच के साथ काम करना चाहिए।

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पुरुषों में 'विशेष' होने का अहम्



अगर हम बचपन से बेटों को विशेष होने और लड़कियों को कमतर होने का अहसास कराना बंद कर दें तो स्थिति काफी हद तक सुधर सकती है... क्योंकि इसी अहसास के साथ जब वह बाहर निकलते हैं तो लड़कियों को मसल देने में मर्दानगी समझते हैं... उनकी नज़रों में लड़कियां 'वस्तु' भर होती हैं।

यह सब इसलिए होता है कि हम बचपन से बेटों और बेटियों में फर्क करते हैं.... बेटियां घर का काम करेंगी, बेटे बाहर का काम करेंगे... बचपन से सिखाया जाता है कि खाना बनाना केवल बेटियों को सीखना चाहिए... सारे संस्कार केवल बेटियों को ही सिखाये जाते हैं, कैसे चलना है, कैसे बैठना है, कैसे बोलना है, इत्यादि।  जिन्हें शुरू से ही निरंकुश बनाया गया है, वह बड़े होकर निरंकुशता ही फैलाएंगे.

अगर हम बदलाव लाना चाहते है तो शुरुआत हमें अपने से और अपनों से ही करनी होगी। वर्ना करने के लिए तो कितनी ही बातें हैं... यूँ ही करते रहेंगे और होगा कुछ भी नहीं...

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चंद्रमौलेश्वर जी - उनका संदेसा उनके जाने के बाद आया!


ख़ुशी का झोंका आंसुओं को साथ लाया।
उनका संदेसा उनके जाने के बाद आया।


आज अचानक अपने इस ब्लॉग का कमेन्ट 'स्पैम फोल्डर' चेक कर रहा था दो देखा हैदराबाद के प्रमुख ब्लॉगर चंद्रमौलेश्वर जी, जिनका देहांत पिछले महीने की 9 तारिख को हुआ है, की नए साल की मुबारकबाद वाली टिप्पणी वहां पड़ी हुई है...





आँखों में आंसू भर आये - उनकी शुभकामनाएँ मुझे उनके इस दुनिया से चले जाने के बाद मिली...


आपकी टिप्पणियाँ आपकी याद दिलाती रहेंगी चंद्रमौलेश्वर जी...

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धार्मिक वैमनस्य और परेशानी का सबब


परेशानी का सबब यह है कि हमेशा दूसरों के धर्म को अपनी मान्यताओं के चश्मे से देखा जाता है.

दूर की निगाह के चश्में से पास का या पास की निगाह के चश्में से दूर का नज़ारा साफ़ दिखाई दे सकता है क्या?

यह झगड़ों की एक बड़ी वजह है!

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टीम अन्ना का राजनीती में स्वागत है

टीम अन्ना के राजनीती में आने का स्वागत होना चाहिए, फिर इसके चाहे सद्परिणाम निकलें या दुष्परिणाम, कम से कम ज़िम्मेदारी तो होगी. अभी तो जो दिल ने चाहा कह दिया, जो मन में आया कर दिया. लेकिन टीम अन्ना को राजनीती में आने के बाद बात की गंभीरता का अहसास होगा, क्योंकि जो बोला जाएगा उसे कर दिखाने का मौका भी मिल सकता है. इसलिए हवा-हवाई की जगह तौल-मौल के बोलना पड़ेगा.

किसी भी बात पर अड़ने के मैं पहले भी खिलाफ था, हमारा काम प्रदर्शन करना, लोगो को जागरूक करना, सरकार को अपने मुद्दों पर गंभीरता से विचार करने के लिए विवश करना होना चाहिए. सरकार जो भी कार्य करती है उसके अच्छे या बुरे परिणामों पर उसकी ज़िम्मेदारी होती है, इसलिए संविधानी मर्यादाओं के अंतर्गत उसे किसी भी फैसले को करने या करने का हक़ होना चाहिए... साथ ही साथ जनता में भी जागरूक होकर अपने खिलाफ फैसले करने वाली सरकार को उखाड फैकने का माद्दा होना चाहिए.

राजनैतिक सिस्टम को सुधारने का यही एकमात्र तरीका है...

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रौनकें नई लाया है त्यौहार-ए-नया साल



रौनकें नई लाया है त्यौहार-ए-नया साल।

खुशियों पे आज छाया है ख़ुमार-ए-नया साल।।

हर होंट पे तबस्सुम आज चमचमा रही है।

शौखियों पे यूँ आया है निखार-ए-नया साल।।




नव वर्ष 2012  की ढेरों शुभकामनाएँ!

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