दोहरा रवैया या तानाशाही?

Ameeque Jamei को भाजपा विधायक ओ पी शर्मा ने मीडिया के सामने तथा आप पार्षद राकेश कुमार को भाजपा पार्षदों ने कैमरे के सामने मारा था, क्या कोई कार्यवाही हुई थी?

पर वहीँ दूसरी ओर एक शिकायत भर पर पुलिस दिल्ली के आम आदमी पार्टी के विधायक को प्रेस कॉन्फ्रेंस के बीच में से ही तकरीबन घसीटने के अंदाज़ में गिरफ्तार कर के ले गई!





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बदलाव लाने के लिए जागना होगा

व्यवस्था की नाकामी या फिर भेदभाव जैसे कारणों से उपजा गुस्सा एक स्वाभाविक क्रिया है... अगर बदलाव चाहते हैं तो इस गुस्से का दुरूपयोग करने की जगह सदुपयोग होना चाहिए... और सब्र से काम लेने वाला ही अपने गुस्से का सदुपयोग कर सकता है।
राजनीति जनता को सुनहरे ख्वाब दिखाना भर रह गयी है, जिसका हकीक़त से कोसो दूर का भी वास्ता नहीं होता... वैसे भी सोती हुई कौम को तो बस ख्वाब ही दिखाए जा सकते हैं, हकीक़त में हालात बदलने के लिए तो हमें जागना होगा, जिंदा कौम बनना होगा। 
- शाहनवाज़ सिद्दीकी  

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हत्या, मुआवज़ा और उसमें धार्मिक एंगल की शर्मनाक कोशिश

अपनी ईमानदारी और धमकियों के बावजूद करप्शन के आगे नहीं झुकने के कारण क़त्ल कर दिए गए NDMC स्टेट मैनेजर मुहम्मद मोईन ख़ान के परिवार को दिल्ली सरकार द्वारा 1 करोड़ रूपये की मदद को कई अंधभक्त बेशर्मी के साथ धार्मिक एंगल देने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे मेसेजेस को व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया साइट्स पर नफरत फैलाने की नियत से खूब शेयर किया जा रहा है।

हालाँकि दिल्ली सरकार की 1 करोड़ रूपये की मदद वाली पॉलिसी केवल उन सरकारी कर्मचारियों के लिए है जो अपने कर्तव्य को निभाने के चलते मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं अथवा क़त्ल कर दिए जाते हैं। काश यह लोग इस तरह की मदद प्राप्त करने वालों की सूचि देख लेते तो शायद ऐसी घटिया सोच सामने नहीं लाते। 

मुहम्मद मोईन ख़ान होटल 'द कनॉट' की लीज़ टर्म के फाइनल ऑर्डर पर हस्ताक्षर करने वाले थे, जिसके लिए उन्हें खरीदने की कोशिश हुई, धमकियां दी गईं पर जब वो नहीं झुके तो उनकी हत्या कर दी गई। हालाँकि यह जानकारी भी सामने आ रही है कि भाजपा नेता और NDMC के वाईस चैरयरमेन करण सिंह ने तंवर ने मोईन खान की हत्या से 11 दिन पहले LG नजीब जंग से उन्हें NDMC के असिस्टेंट लीगल एडवाइज़र के पद से हटाने की सिफारिश भी की थी और इस सिफारिश के चलते उनपर इस हत्याकांड में शामिल होने के आरोप भी लग रहे हैं। 

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'भ्रष्टाचार' सांप्रदायिकता और डर की राजनीति का असल मक़सद है

राजनैतिक पार्टियों द्वारा सबकी बात करने की जगह सिर्फ हिन्दू या मुसलमानों की बात करना केवल एक भ्रमजाल है, जिससे इन्हे छोड़कर बाकी किसी और को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। हमें अलग से कुछ नहीं चाहिए, ज़रूरत इसकी है भी नहीं, बल्कि हमें जो सबका है उसमे से बिना भेदभाव अपना वाजिब और बराबर हक़ चाहिए। यहाँ जितने नेता या पार्टियां हिन्दू-मुस्लिम या किसी और धर्म के लिए स्पेशल वाली बात करते हैं, आज उनसे दूरी बनाने की सख्त आवश्यकता है।

ऐसा हरगिज़ नहीं है कि राजनैतिक पार्टियाँ किसी समुदाय का हित चाहती हैं इसलिए ख़ासतौर पर उनके लिए लड़ती हैं, या फिर किसी दूसरे समुदाय की दुश्मन हैं! बल्कि असलियत यह है कि इनके द्वारा यह सब मायाजाल भ्रष्टाचार को छुपाने के लिए रचा जाता है। राजनैतिक पार्टियां यह हरगिज़ नहीं चाहती कि देश के लोगों का ध्यान इनके द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार पर जाए। बल्कि साम्प्रदायिकता का असल मक़सद ही भ्रष्टाचार है, इसी मक़सद के लिए जनता को दो ग्रुपों में बाँट दिया गया है। 

यह लोग हमारे हितों के सिर्फ नारे लगाकर और दूसरे पक्ष की बेबुनियाद बातों से डराकर हमें अपना मानसिक गुलाम बनाए रखना चाहते हैं। और इसके पीछे का कारण यह है कि हमें अगर इनके भ्रष्टाचार का पता भी चल जाए तो हमारे पास इनका समर्थन करने की जगह कोई दूसरा चारा नहीं हो। आज अक्सर राजनैतिक दल हिन्दू-मुस्लिम हित या फिर दुश्मनी का चोगा ओढ़ें हुए हैं और कुछ इस राजनीति के विरोध की राजनीति करते हैं, जबकि अगर ध्यान दिया जाए तो पता चलेगा कि इसमें से किसी ने भी किसी का भला नहीं किया और ना ही सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करने की राजनीति करने वालों ने ही साम्प्रदायिकता समाप्त करने  की कोई कोई पहल की। असल बात यह है कि यह राजनैतिक दल हमें इन मुद्दों में उलझाकर जनता के सरोकार से जुड़े मुद्दों से दूर रखना चाहते हैं।

हमें यह समझना होगा कि आज की ज़रूरत इस राजनीति और इसके कारण देश को हो रहे नुकसान को पहचानकर ऐसे राजनेताओं / पार्टियों से पीछा छुड़ाने की है।

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मोदी जी और 'बिना बारहवीं पास किये ग्रेजुएशन करें' जैसे विज्ञापन

आजकल प्रधानमंत्री मोदी जी की डिग्री का मामला चारो और चर्चा का विषय है, हम अक्सर दीवारों पर एक विज्ञापन लिखा देखते हैं कि 'बिना दसवीं पास किये बारहवीं करें' या फिर बिना 'दसवीं, बारहवीं पास किये ग्रेजुएशन करें'! तो क्या यह मामला भी कुछ वैसा ही है या फिर जानबूझ कर डिग्री नहीं दिखाई जा रही है? पिछले साल दिल्ली के विधायक और तत्कालीन मंत्री जितेंदर सिंह तोमर पर भी कुछ ऐसा ही आरोप लगा था...

मेरे दिल में यह सवाल घूम रहा है कि अगर जितेंदर सिंह तोमर को डिग्री की जानकारी नहीं देने पर गिरफ्तार किया जा सकता है, यूनिवर्सिटी ले जाकर मालूम किया जा सकता है कि बताओ टॉयलेट किधर है, केंटीन किधर है! अगर अदालत का फैसला आने से पहले ही मीडिया द्वारा मुजरिम ठहरा सकता है तो फिर प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा अब तक बीए की डिग्री की जानकारी नहीं देने पर यह सब क्यों नहीं हुआ?

गुजरात यूनिवर्सिटी से कोई यह क्यों नहीं पूछता कि आखिर उसके पास मोदी जी की बीए की डिग्री की जानकारी क्यों नहीं है? बिना उसके उन्हें एमए में दाखिला कैसे दिया गया था?

सवाल यह है कि क्या कानून और प्रशासन सभी के लिए सामान नहीं होना चाहिए? तोमर के मामले में कोर्ट में केस था, किसी ने एक रोल नंबर दिया और कहा कि यह तोमर का रोल नंबर है और यूनिवर्सिटी कह रही है कि इस रोल नंबर से किसी को डिग्री नहीं दी गई है। कोर्ट ने तोमर से मालूम किया तो जवाब नहीं दिया गया, अभी कोर्ट में केस चल ही रहा था कि पुलिस ने उन्हें अरेस्ट कर लिया और दोनों यूनिवर्सिटीज़ लेकर गई, वहां जाकर जगहों की शिनाख्त कराई गई। इसपर कोर्ट का कमेंट भी था कि जब केस चल रहा है तो गिरफ्तार करने की इतनी जल्दी क्या थी?

सवाल यह नहीं कि डिग्री फर्जी है या नहीं, पर अगर उसके फर्जी होने के आरोप लग रहे हैं और अख़बारों में डिग्री की जो कॉपी दिखाई गई वह गलत निकल रही है तो प्रधानमंत्री को खुद आगे आकर डिग्री दिखानी चाहिए थी। और जब बार-बार मालूम करने पर भी वो जानकारी नहीं दे रहे हैं और अख़बारों में छपी उनकी बीए की डिग्री गलत होने की जानकारी आ रही है तो पुलिस अब उस तरह से विधायक तोमर मामले की तरह सुपर एक्टिव क्यों नहीं है?

गिरफ़्तारी के समय तोमर की डिग्री फर्जी होना साबित नहीं हुआ था और ना ही अभी तक हुआ है। उसपर भी असली डिग्री की जानकारी नहीं देने का आरोप था जो कि अभी प्रधानमंत्री जी पर लग रहा है। इसमें बेहतर तो यह था कि अगर प्रधानमंत्री महोदय के पास डिग्री है तो उन्हें अभी तक उसकी जानकारी उपलब्ध करा देनी चाहिए थी, क्योंकि जितनी देर होगी लोगों के मन में उतने सवाल पैदा होंगे और बाद में अगर जानकारी दे भी दी गई तब भी अधिकतर लोगो के मन में सवाल रह जाएंगे!

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वो कितना जानता है

वो कितना जानता है मेरे अंदर झांक लेता है
मेरी हँसी में छुपती हर उदासी भांप लेता है

- शाहनवाज़ 'साहिल'

#Sher

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देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांगने वालों को मुंहतोड़ जवाब दीजिये

एक हिंदुस्तानी होने के नाते मेरा अंतर्मन, मेरा रोम-रोम ख़ुद-बाखुद हिंदुस्तान ज़िंदाबाद बोलता है, अगर कोई यह कहता कि मुझे यह सिखाना पड़ेगा तो वो आप सब को मेरे खिलाफ भड़का रहा है, वोह अपने कुटिल शब्दों का इस्तेमाल करके आपके दिल में यह बैठना चाहता है कि मैं 'गद्दार' हूँ।

इसलिए अगर आप मुझसे मुहब्बत करते हैं तो ऐसे लोगों को मुहतोड़ जवाब देना आप का फ़र्ज़ है।

अगर मैं भावुक होकर उसका विरोध करूँगा तो वोह कहेगा कि देखा मैंने कहा था ना यह 'गद्दार' है और अगर उसके कहने पर 'जय हिंद' कहूँगा तो कहेगा कि देखा एक गद्दार को 'जय हिंद' कहने पर मजबूर कर दिया, जबकि यह लफ्ज़ अहसास बनकर ना सिर्फ मेरे दिल की गहराइयों में बसता हैं बल्कि मेरे बुज़ुर्गों ने भी आपके बुज़ुर्गों की ही तरह इस देश की मिट्टी के लिए अपना लहू बहाया है।

- भारतीय मुसलमान

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खाकिश्तरों से होना यूँ अन्जान भी भारी रहा


इस ज़िन्दगी का इश्क़िया उन्वान भी भारी रहा
खाकिश्तरों से होना यूँ अन्जान भी भारी रहा

हम दुनिया को समझते रहे शादमानियाँ
इन हसरतों का होना यूँ मेहमान भी भारी रहा

- शाहनवाज़ 'साहिल'

शब्दों के अर्थ:
उन्वान = शीर्षक, Tital, Heading
खाकिश्तर = ऐसा अंगारा जिस के बाहर में राख़ और अन्दर आग हो
शादमानियाँ = खुशियां, Happiness

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लोकप्रिय प्रधानमंत्री और कमज़ोर विपक्षी नेतृत्व

एबीपी न्यूज़ के सर्वे 'देश का मूड' के मुताबिक़ तक़रीबन हर मुद्दे पर जनता की राय मोदी सरकार के विरुद्ध है, परन्तु लोकप्रियता के मामले में प्रधानमंत्री मोदी अपने समकक्ष दूसरे नेताओं से कहीं आगे हैं... आपकी नज़र में इसके पीछे क्या कारण हो सकते है?
मेरे विचार में इसकी वजह उनके सामने किसी दूसरे 
सशक्त राष्ट्रिय नेतृत्व का नहीं होना है और अगर कांग्रेस पार्टी निकट भविष्य में मज़बूत नेतृत्व नहीं दे पाती है तो देश की जनता को और स्वयं 'केजरीवाल' को 'दिल्ली' से आगे बढ़कर नेतृत्व के इस मुद्दे पर विचार करना चाहिए। बात चाहे मनमोहन सिंह सरकार के समय हो या फिर आज की, मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि कमज़ोर विपक्ष होना देश के लिए नुक्सान की बात है।

फिलहाल राष्ट्रीय परिदृश्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टक्कर में कोई नेता नज़र नहीं आता है, अगर केंद्र की बात करें तो एक तरफ मोदी हैं और दूसरी तरफ राहुल गांधी। अगर बात राहुल गांधी की करें तो वह राजनीति में गंभीरता के साथ नज़र नहीं आते, जब भी देश को विपक्ष के सशक्त लीडर की ज़रूरत होती है तो वोह गुमनामी में पड़े होते हैं।  या तो उनमें लीडरशिप स्किल की कमीं हैं या फिर राजनीति को लेकर अनमनापन है। 

कांग्रेस नीत अरुणांचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, पर राहुल गांधी का कहीं पता ही नहीं है और इस मुद्दे पर उनकी जगह केजरीवाल ने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार का जमकर विरोध किया। इसी तरह पिछले दिनों जितने भी इश्यू रहे वहां राहुल गांधी नदारद थे, चाहे वह असहिष्णुता का मुद्दा हो या फिर केंद्र के द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय या फिर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की बेटी की शादी के दिन उनके घर पर सीबीआई रेड डालना हो।

राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी का नेता बताया जाता है, पर वह हर बड़े मुद्दे पर अपनी ना सिर्फ विपक्ष का बल्कि अपनी पार्टी का ही नेतृत्व करते दिखाई नहीं देते। अचानक कभी कहीं से आते हैं और फिर कहीं चले जाते हैं.... जबकि ज़रूरत हर समय नेतृत्व करने की है।

कुछ लोग कहते हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार के अलावा किसी और को प्रतिभा दिखाने का मौका नहीं मिलता जबकि मेरी सोच यह है कि किसी भी लीडर को प्रतिभा दिखाने के लिए मौके का इंतज़ार नहीं करना पड़ता।

हालाँकि यह तो तय है कि रास्ता अरविंद केजरीवाल के लिए भी लंबा है और वोह भी तब जबकि वोह उस राह पर चलना शुरू करें। और यह भी है कि अगर वोह नेशनल पॉलिटिक्स में जाना चाहते हैं तो उन्हें अंतर्विरोध से आगे बढ़कर हर राष्ट्रिय मुद्दे पर भी अपनी राय बनानी और देश के सामने रखनी पड़ेगी!

राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के अलावा नीतीश कुमार भी अच्छे विकल्प हो सकते है, पर उनकी बिहार से बाहर की मक़बूलियत पर संदेह है। अच्छी परफॉर्मेंस के बावजूद अभी तक क्षेत्रीय नेतृत्व भी सही से नहीं कर पाए हैं, इसलिए अगर वह राष्ट्रिय राजनीति में आना भी चाहें तो उनके लिए मंज़िल अभी बहुत दूर नज़र आती है।

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