हम इक ऐसे समाज में रहते हैं जहां विभिन्न सोच और आस्था को मानने वाले एक साथ रहते हैं और फिर यह इंसानियत का तकाज़ा भी है कि हम एक-दूसरे की भावनाओं का ख़याल रखें
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यह इसलिए भी ज़रूरी है कि अलग-अलग तरह के माहौल में पलने-बढ़ने के कारण हमें एक-दूसरे की मान्यताओं की समझ नहीं होती और इसी वजह से हम अक्सर दूसरों की सोच को अपने चश्में से देखने की कोशिश करते हैं।
यही कारण है कि हमें दूसरों की सोच हास्यपद / क्रूर / बेवकूफी लगती है और हम एक-दूसरे की भावनाओं का मज़ाक उड़ाने लगते हैं। यहाँ तक कि एक-दूसरे को अपशब्द कहने से भी गुरेज़ नहीं करते।
जबकि ऐसी ही स्थिति के लिए अल्लाह कुरआन में फरमाता है:
कह दीजिए "ऐ इंकार करने वालों, मैं वैसी बंदगी नहीं करूँगा जैसी तुम करते हो।
ना ही तुम वैसी बंदगी करने वाले हो जैसी मैं करता हूँ।
और ना मैं वैसी बंदगी करने वाला हूँ जैसी तुमने की है।
और ना तुम ऐसी बंदगी करने वाले हो जैसी मैं करता हूँ।
तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म।
(कुरआन 109: 1-6)
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