इबादत या पूजा का असल मतलब है 'हक़ अदा करना' और हमारे रब ने हम पर दो तरह के हक़ रखें हैं, एक खुद उसके जैसे कि नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात इत्यादि और दूसरे बाकियों के हम पर हक़ हैं जैसे माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी-बच्चों के हक़, उसके बाद रिश्तेदारों, पडौसियों, यतीमों, गरीबों, मजबूरों, भूखे-प्यासों के, सड़क पर चलने वालों के हक़... इसी तरह परिंदों, जानवरों के भी हुकूक हैं, यहाँ तक कि हमारे शरीर के अंगों के भी हम पर हुकूक हैं, जैसे हमारे शरीर / सेहत / जीवन की हिफाज़त, नज़रों की परहेज़गारी, शर्मगाह की पाकीज़गी इत्यादि...
मगर हमें यह याद रखना आवश्यक है कि अल्लाह गफूरुर-रहीम है, उससे बड़ा रहम करने वाला, क्षमा करने वाला कोई और नहीं हो सकता और उसने आखिरत (परलोक) में रहम की बारिश का वादा किया है, लेकिन उसके अलावा बाकियों के हुकूक हमें अदा करने ही होंगे, उसने मुहम्मद (स) के हाथों हमें यह पैगाम भेज दिया है कि इंसान आख़िरत में किसी को अपनी एक नेकी भी नहीं देगा और अपने हर हक़ का बदला लेगा...
तो सोचिये हमें ज्यादा मेहनत कहाँ करने की ज़रूरत है?
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