दुनिया के शुरू से ही इस्लाम की बुनियाद तौहीद अर्थात "ला'इलाहा इल्लल्लाह" है, जिसका तात्पर्य है कि इस ब्रह्माण्ड की हर चीज़ कुछ भी करने में ईश्वर की मोहताज है! मतलब 'सूर्य' रौशनी देने या 'पृथ्वी' जीवन देने में उसके हुक्म के मोहताज है, क्योंकि पॉवर सेंटर केवल एक अल्लाह है... इसका मतलब यह हुआ कि बाकी चीज़ें प्रशंसनीय तो हो सकती हैं परन्तु पूजनीय नहीं!
उदहारण के लिए अगर हम सूर्य की प्रशंसा करते हैं कि इसमें उसके बनाने वाले की प्रशंसा भी स्वत: ही निहित हो जाती है पर अगर हम यह सोच कर चलते हैं कि सूर्य स्वयं में एक ताकत है जिससे हमें कोई फायदा पहुँच सकता है तो यह उसकी पूजा तथा उसके पावर सेंटर और क्रिएटर की अवहेलना हुई! अगर 'सृजन' (Creation) की प्रशंसा में 'सर्जक' (Creator) की भूमिका का भी एहसास है तो यह सही है पर अगर 'सृजन' की प्रशंसा करते समय उसे 'सर्जक' की उपमा दे दी जाए तो यह मिथ्या बात हुई!अल्लाह क़ुरआन में फ़रमाता है कि उसने "ला'इलाहा इल्लल्लाह" की शिक्षा देने के लिए चार पूरी किताबें और कई पृष्ठ (सहीफ़े) उतारे। उसने दुनिया के हर कोने, हर समाज में अपने नेक बन्दों को मैसेंजर बनाकर भेजा जो उन्ही की भाषा में लोगों को समझाते थे और उस समझाने के एतबार से ही उस वक़्त के लोगों की ज़िन्दगी को उनका इम्तहान बनाया गया और उसी पर 'इंसाफ के दिन' पास या फेल पर फैसला होगा!
Very Nice....
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