मानता हूँ कि कुछ चीज़ें संवैधानिक मज़बूरी में करनी पड़ती हैं, जैसे कि निर्भया केस में जघन्यय अपराध करने के बावजूद नाबालिग लड़के को अदालत ने फांसी देने अथवा जेल भेजने की जगह 3 साल के लिए बाल सुधर गृह में भेजा। जहाँ किसी मेहमान की तरह उसकी शिक्षा, खान-पान और सुरक्षा पर हज़ारों-लाखों रूपये का खर्च हुए। उसे काम सिखाया गया, लिखना-पढ़ना सिखाया गया, काउंसलिंग की गई और इसी तरह बाहर आने पर कारोबार के लिए 10 हज़ार रूपये और सिलाई मशीन दी जा रही है।
परन्तु यह बेहद ही दुःख और अफ़सोस की बात है कि उसे यह सब केवल बालिग़ होने से चंद महीने छोटा होने पर मिल गया, जबकि होना यह चाहिए कि किसी अपराधी की उम्र की जगह उसके अपराध की भयावहता को देखते हुए नाबालिग होने ना होने का फैसला लिया जाए। जो व्यक्ति क्रूर तरीके से बलात्कार कर सकता है, क्रूरता की इस हद तक जा सकता है कि लड़की की दर्दनाक मौत हो जाती है, वह हरगिज़-हरगिज़ नाबालिग नहीं हो सकता। फिर चाहे कानून में फेरबदल ही क्यों ना करना पड़े, पर ऐसे लोगों को यूँ खुला छोड़ने की जगह बालिगों की तरह ही सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए। ऐसे लोग किसी एक के नहीं बल्कि पूरी इंसानियत के गुनहगार हैं!
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