अपनी सोच दूसरों पर थोपने और ख़ुद से सज़ा देने की सोच गुंडागर्दी है और इसका जमकर विरोध किया जाना चाहिए।
देश, पंथ या फिर धर्म इत्यादि में दिखावे की जगह दिल से मुहब्बत का जज़्बा होना चाहिए, दिखावा आम होने से लोग दूसरों पर अपनी राय को ज़बरदस्ती थोपने लगते हैं। इमोशनल ब्लैकमेल करके लोगों को इकठ्ठा करते हैं और फिर अपनी राय से अलग राय रखने वालों पर इसी तरह धावा बोलते हैं जैसे प्रोफ़ेसर कुलबर्गी या फिर दादरी के अख़लाक़ पर बोला गया था। मुंबई में सिनेमा में राष्ट्रिय गान बजते समय खड़े ना होने वाले परिवार को बेइज़्ज़त करने वाले मामले को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
जबकि इन तीनों या इन जैसे सभी मामलों में होना यह चाहिए था कि अगर कहीं पर कोई कुछ गलत कर भी रहा है तो कानून को अपने हाथ में लेने की जगह, कानून का सहारा लिया जाना चाहिए, पुलिस को सूचित करना चाहिए।
हमें अपनी सोच के विरुद्ध सोचने वालों के प्रति इन्साफ का रवैया अपनाने की ज़रूरत है, कानून और नैतिकता के दायरे में रहते हुए हर किसी को अपना मत ज़ाहिर करने, अपनी राय के मुताबिक़ ज़िन्दगी जीने का हक़ है और होना भी चाहिए। पर लोकतंत्र में अपनी राय को हर हाल में लागू करने वाली सोच का विरोध होना चाहिए। ऐसी सोच फासिस्ट अथवा तानाशाही विचारधारा से उत्पन्न होती है और सभ्य समाज में फासिज़्म अथवा तानाशाही को हरगिज़ स्थान नहीं मिलना चाहिए।
देश, पंथ या फिर धर्म इत्यादि में दिखावे की जगह दिल से मुहब्बत का जज़्बा होना चाहिए, दिखावा आम होने से लोग दूसरों पर अपनी राय को ज़बरदस्ती थोपने लगते हैं। इमोशनल ब्लैकमेल करके लोगों को इकठ्ठा करते हैं और फिर अपनी राय से अलग राय रखने वालों पर इसी तरह धावा बोलते हैं जैसे प्रोफ़ेसर कुलबर्गी या फिर दादरी के अख़लाक़ पर बोला गया था। मुंबई में सिनेमा में राष्ट्रिय गान बजते समय खड़े ना होने वाले परिवार को बेइज़्ज़त करने वाले मामले को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
जबकि इन तीनों या इन जैसे सभी मामलों में होना यह चाहिए था कि अगर कहीं पर कोई कुछ गलत कर भी रहा है तो कानून को अपने हाथ में लेने की जगह, कानून का सहारा लिया जाना चाहिए, पुलिस को सूचित करना चाहिए।
हमें अपनी सोच के विरुद्ध सोचने वालों के प्रति इन्साफ का रवैया अपनाने की ज़रूरत है, कानून और नैतिकता के दायरे में रहते हुए हर किसी को अपना मत ज़ाहिर करने, अपनी राय के मुताबिक़ ज़िन्दगी जीने का हक़ है और होना भी चाहिए। पर लोकतंत्र में अपनी राय को हर हाल में लागू करने वाली सोच का विरोध होना चाहिए। ऐसी सोच फासिस्ट अथवा तानाशाही विचारधारा से उत्पन्न होती है और सभ्य समाज में फासिज़्म अथवा तानाशाही को हरगिज़ स्थान नहीं मिलना चाहिए।
डायनामिक सही कहा आपने
ReplyDeleteMain bhi apki baat se iteffaq rakhta hu shanawaj ji. ye sab galat hai.
ReplyDeleteजीने का यही सही तरीका है, जिओ और जीने दो। बढ़िया सोच।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete